जम्मू और कश्मीर आरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2023 और जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2023 के लोकसभा में पारित होते ही जम्मू कश्मीर की राजनीति में एक बार फिर से चर्चा और बहस का दौर शुरू हो गया है. सत्ता के गलियारों में इस बात की खूब चर्चा हो रही है कि लोकसभा चुनाव से ठीक पहले यह विधेयक पारित करवाकर केंद्र सरकार, जम्मू-कश्मीर की भाजपा इकाई के हाथ मजबूत करना चाहती है. जानकारों का दावा है कि इसका मकसद लोकसभा चुनाव में अच्छे प्रदर्शन की बुनियाद पर आगामी विधानसभा चुनाव में भी बाज़ी मारना और कश्मीर घाटी के किसी क्षेत्रीय दल से बिना हाथ मिलाए बिना जम्मू कश्मीर की सत्ता पर काबिज़ होना है.
विधानसभा में कितनी सीटें ?
राज्यसभा से पारित होने और राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद जम्मू और कश्मीर विधानसभा में सीटों की प्रभावी संख्या 95 हो जाएगी, जबकि कुल सीटें बढ़कर 119 हो जाएंगी. इसमें पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की 24 सीटें भी शामिल हैं, जो खाली रहेंगी. नई विधानसभा के गठन के लिए कश्मीर डिवीजन में 47 और जम्मू डिवीजन में 43 सहित 90 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव होंगे. जम्मू कश्मीर के इतिहास में पहली बार नौ सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित की गई हैं और अनुसूचित जाति के लिए भी सात सीटों का आरक्षण दिया गया है. जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक में दो कश्मीरी पंडितों के अलावा विधानसभा में एक पाकिस्तानी शरणार्थी के नामांकन का प्रस्ताव रखा गया है. सदन में पहले से ही दो महिलाओं के नामांकन का प्रावधान है. अब जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल के पास मतदान के साथ दो कश्मीरी पंडितों और दो महिलाओं और एक पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर शरणार्थी सहित पांच व्यक्तियों को विधानसभा में नामांकित करने की शक्ति होगी.
बहुमत साबित करने के लिए किसी भी दल को अब 48 विधायकों के समर्थन की ज़रूरत होगी. कश्मीर के राजनीतिक दलों, आम लोगों, कश्मीरी पंडितों और विश्लेषकों ने इन दो विधेयकों के पारित होने पर अपनी अलग-अलग राय ज़ाहिर की है. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) के नेता मोहम्मद यूसुफ़ तारिगामी पूछते हैं, ”गृहमंत्री ने जिस एम्पावरमेंट की बात की है, तो मैं ये पूछना चाहता हूँ कि जिस जम्मू -कश्मीर में बीते पांच वर्षों से चुनाव नहीं हो रहे हैं, क्या ये एम्पावरमेंट है?” तारिगामी का कहना है, “जिन लोगों को मजबूत करने की बात हो रही है, वो उनके हित में नहीं है. बीजेपी की सीटों में पिछले दरवाज़े से गिनती बढ़ाना कश्मीरी पंडितों के फ़ायदे के तक़ाज़े के मुताबिक़ नहीं है.” वहीं नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता सलमान सागर कहते हैं कि कश्मीर के ‘हालात ठीक करने में बीजेपी नाकाम हो चुकी है’ और अब वह आरक्षण राजनीति करके अपनी नाकामियों को छुपा रही है. सागर ने कहा, “होना ये चाहिए था कि चुनावी राजनीति में सीटों को रिज़र्व रखा जाता और किसी भी पार्टी से खड़ा होकर मुक़ाबला करते. अब इन लोगों को राज्यपाल नामित करेंगे, जो खुद नामांकित किए गए हैं. ये सब कुछ लोकतांत्रिक संस्थाओं का मज़ाक बनाने के बराबर है.”
वहीं कश्मीरी पंडितों के लिए काम करने वाली संस्था कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति (केपीएसएस) के अध्यक्ष संजय टिक्कू कहते हैं, “जम्मू -कश्मीर विधानसभा का जब पहला चुनाव हुआ था तो कई कश्मीरी पंडित विधानसभा में चुनकर आए थे.” “कई कश्मीरी पंडित मंत्री बन चुके हैं. मुझे नहीं लगता कि जो समुदाय 1990 में कश्मीर से विस्थापित हो चुका है, उनका दो नामांकन सीटों से पुनर्वास होगा.” कश्मीर के रहने वाले इसाक नेहवी कहते हैं कि कश्मीरी पंडित कश्मीर का वह हिस्सा हैं, जिसको अलग नहीं किया सकता है. कश्मीर यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर रहे नूर अहमद बाबा कहते हैं, “बीते पांच वर्षों से जम्मू -कश्मीर में कोई चुनी हुई सरकार नहीं है. भारतीय संविधान में फेडरल प्रोविज़न हैं.” “इस लिहाज़ से इस मुद्दे पर जम्मू -कश्मीर की चुनी हुई सरकार को इस पर कोई पहल करनी चाहिए थी. यहाँ जो इम्प्रैशन है वो यह है कि सब कुछ यहाँ दिल्ली से हो रहा है. यहां के लोगों को किसी राय में साथ लेकर नहीं चला जा रहा है.”
भाजपा की पकड़ होगी मजबूत?
हालांकि इस पूरी कवायद को जानकार जम्मू संभाग में भारतीय जनता पार्टी की पकड़ मजबूत करने के प्रयास के तौर पर देख रहे हैं. 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपना अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए 87 में से 25 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की थी. राज्य में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला और भाजपा ने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनाने का फ़ैसला लिया था. लगभग तीन साल तक साझा सरकार चलाने के बाद भाजपा ने महबूबा मुफ़्ती की सरकार को समर्थन न देने का फैसला लिया. इससे 19 जून 2018 को गठबंधन टूट गया और साझा सरकार गिर गई थी. अगस्त 2019 में राज्य के पुनर्गठन के बाद से भाजपा ने जम्मू कश्मीर में अपने दम पर सरकार बनाने का लक्ष्य रखा हुआ है. जानकारों का मानना है कि चुनावी गणित को साधने के लिए अन्य राज्यों की तर्ज पर भाजपा अब जम्मू कश्मीर में भी ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के फार्मूले पर काम कर रही है.
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हरिओम ने बताते हैं, “अभी इस सवाल का जवाब दे पाना कठिन होगा कि आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन कैसा रहेगा.” उनके मुताबिक अधिकतर स्थानीय भाजपा नेता जनता के बीच अपनी साख गंवा चुके हैं. इसके चलते भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने कमान अपने हाथ में थाम रखी है. वो कहते हैं, “वक़्त आने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और अन्य केंद्रीय नेता और चुनाव प्रचार समिति के सदस्य चुनावों की रूपरेखा तैयार करेंगे और अपना रिपोर्ट कार्ड जनता के सामने रखकर उनसे बहुमत के लिए समर्थन मांगेंगे.”
जम्मू कश्मीर में ओबीसी
कठुआ के घगवाल के रहने वाले और पिछड़ा वर्ग बोर्ड के पूर्व उपाध्यक्ष रशपाल वर्मा ने बताया, “अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को केंद्र सरकार की नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है. ज्यादातर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में भी ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण है.” वो कहते हैं, “हालाँकि, जम्मू-कश्मीर में ओबीसी को कोई आरक्षण नहीं था. पिछली सरकारों ने अन्य सामाजिक जातियों (ओएससी) को सिर्फ चार प्रतिशत आरक्षण दिया. जम्मू-कश्मीर में यह अधिनियम पहले भी था, लेकिन वह कमजोर वर्गों के लिए था जबकि इस बार संवैधानिक नाम अन्य पिछड़ा वर्ग देकर प्रधानमंत्री मोदी जी ने उन्हें सम्मान दिया है.” जम्मू कश्मीर में अन्य पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत आने वाली जनसंख्या का कोई भी आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन एक अनुमान के मुताबिक इनकी जनसंख्या संख्या 30-40 प्रतिशत है. रशपाल वर्मा कहते हैं कि ओबीसी को दिए जाने वाले आरक्षण का प्रतिशत अभी तय नहीं किया गया है. उन्हें उम्मीद है कि विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के तुरंत बाद प्रतिशत को अंतिम रूप दिया जाएगा. वे कहते हैं, “इससे सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की ओबीसी की लंबे समय से लंबित मांग पूरी हो जाएगी.” रशपाल वर्मा कहते हैं, “लोकसभा चुनाव से पहले बड़ी संख्या में 40 से अधिक जातियों को शामिल कर के भाजपा ने लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष को अंतिम पड़ाव तक पहुंचाया है. समय आने पर वह चुनाव में इसका प्रचार कर अपने हक़ में जनता से वोट मांगेगी.”
दोनों विधेयक पारित होने के बाद भाजपा की प्रदेश इकाई के अध्यक्ष रविंदर रैना ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को बधाई देते हुए कहा कि उनकी सरकार ने जम्मू कश्मीर में बहुत से वंचित नागरिकों को उनके हक़ दिला कर उनके साथ इंसाफ़ किया है. रैना ने इस बात का विश्वास दिलाया कि जम्मू कश्मीर के हर वर्ग के नागरिकों के मसलों का हल सिर्फ और सिर्फ मोदी सरकार ही कर सकती है और वो सबको साथ लेकर चल रही है. दूसरी ओर पनुन कश्मीर के चेयरमैन डॉ अजय चरंगू ने नरेंद्र मोदी सरकार के फैसले का स्वागत करते हुए कहा, “कश्मीरी पंडितों के लिए विधानसभा में जो दो सीटों को आरक्षित किया गया है उससे कश्मीरी पंडित समुदाय के लिए थोड़ी सी ‘लेजिस्लेटिव स्पेस’ क्रिएट हो जाएगी.” डॉ चरंगू ने एक सवाल किया, “भाजपा के दो कश्मीरी नेता जो पिछली गठबंधन सरकार में विधानसभा में अपर हाउस के सदस्य थे क्या वो अपनी उपस्थिति से कश्मीरी हिन्दुओं के लिए असेंबली के प्लेटफार्म से उनके लिए कुछ कर पाए या नहीं.” जब तक भाजपा की नीति कश्मीरी हिन्दुओं के विस्थापन पर साफ़ न हो जाए तब तक अगर वो कुछ करने की कोशिश भी करेंगे तो इसका फायदा नहीं होगा.”
विधानसभा में कश्मीरी पंडित
1957 के बाद से जम्मू-कश्मीर की सभी दस विधानसभाओं में एक या दो कश्मीर पंडित विधायक थे. प्रत्येक सभा में समुदाय से एक मंत्री भी होता था. डीपी धर ने 1957 और 1962 में समुदाय के गढ़ हब्बा कदल से जीत हासिल की थी. माखनलाल फोतेदार ने 1967 और 1972 में पहलगाम से जीत हासिल की थी. दोनों बाद में केंद्रीय मंत्री बने. 1983 में, एनसी के पीएल हांडू पहलगाम और कांग्रेस के मनोहर नाथ कौल देवसर सीट से चुने गए और मंत्री बने. 1996 में, घाटी के सात निर्वाचन क्षेत्रों में केवल 12 पंडित मैदान में थे और उनमें से नेकां के पीएल हांडू ने हब्बा कदल सीट जीती और कैबिनेट मंत्री बने.
1987 में भी हांडू हब्बा कदल से जीते और मंत्री बने. 2002 विधानसभा में समुदाय से एक और विधायक थीं- खेम लता वाखलू, जो कांग्रेस के टिकट पर जीतीं थीं. 2008 से 2014 और 2014 से 2018 तक विधानसभा में कोई कश्मीरी पंडित विधायक नहीं था. हालाँकि, 2008-2014 के सदन में, पूर्व मुख्य सचिव विजय बकाया को नेशनल कांफ्रेंस के मैंडेट पर विधान परिषद के लिए चुना गया था, जबकि 2015-2018 सरकार में, गिरधारी लाल रैना और सुरिंदर अंबरदार सहित दो कश्मीरी पंडित उम्मीदवारों को भाजपा के टिकट पर एमएलसी के रूप में चुना गया था. 1996 और 2002 की विधानसभाओं में एक-एक कश्मीरी पंडित विधायक थे- पीएल हांडू और रमन मट्टू, दोनों ने मंत्री के रूप में कार्य किया.
‘भारत सरकार ने सुनहरा मौका खो दिया’
पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के विस्थापितों के संगठन एसओएस इंटरनेशनल ने भी एक सीट आरक्षित करने के केंद्र सरकार के फैसले का कड़ा विरोध किया है. संगठन ने कहा है कि उनके साथ इंसाफ न करके भारत सरकार ने एक सुनहरा मौका खो दिया है. एसओएस इंटरनेशनल के चेयरमैन राजीव चुन्नी ने साफ़-साफ़ कहा कि सरकार द्वारा गठित की गई समितियों ने पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के विस्थापितों के लिए आठ सीटें आरक्षित करने की सिफ़ारिश की थी लेकिन इतने लंबे संघर्ष के बाद उनके हिस्से में सिर्फ़ एक ही सीट आई है. राजीव चुन्नी ने यह भी कहा कि 17 लाख की आबादी वाले ‘समुदाय के साथ इंसाफ़ नहीं किया गया है और हम अपना संघर्ष जारी रखेंगे.’
साभार: https://www.bbc.com/hindi/articles/cg6p65pwxyno
Author, माजिद जहांगीर और मोहित कंधारी, जम्मू कश्मीर से, बीबीसी हिंदी के लिए

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